एनडीए सरकार अपने कई विधेयकों को पारित करने की योजना में कई बार विफल रही है। मोदी सरकार को विपक्षी दलों द्वारा विरोध का सामना करना पड़ा है क्योंकि उन दलों के पास ससंद के उच्च सदन में बहुमत है। राज्य सभा में एनडीए की कमजोर संख्या ने मोदी, जो सुधारों को अनवरत आगे बढ़ाना चाहते हैं, को कमजोर किया है। चाहे यह कोयला खान विधेयक हो या बीमा विधेयक, हर एक महत्वपूर्ण विधेयक ठन्डे बस्ते में चला गया क्योंकि सत्तारूढ़ सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक के लिए पर्याप्त समर्थन नहीं जुटा सकी।
यदि प्रस्तावित विधेयक प्रकृति में कठोर और प्रतिकूल है, तो विपक्ष एक जोरदार विरोध दर्ज कर सकता है और सर्वसम्मति से इसके पारण को रोक सकता है। यह राज्य सभा में बहस का कारण बनेगा और सरकार इसे संशोधित करने के लिए दबाव महसूस करेगी। जबकि अधिकांश मामलों में राज्य सभा के सदस्य प्रस्तावित विधेयकों में जन-विरोधी उपनियमों पर ध्यान आकर्षित करते हैं और नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए एक वास्तविक रूचि प्रदर्शित करते हैं, वहीं ऐसे भी अवसर हो सकते हैं जब ये सदस्य सत्ताधारी दल के लिए बाधाएं खड़ी करने के लिए विधेयकों को पारित करने में देरी करते हैं। यह संभव है कि राज्य सभा में बहुमत में होने के कारण विपक्षी दल वर्तमान सरकार को इसके सुधार एजेंडे के साथ आगे बढ़ने से रोकने के लिए जानबूझकर अडंगा लगा रहे हों।
यदि सत्तारूढ़ सरकार राज्यसभा में अल्पमत है और विपक्ष प्रस्तावित बिलों पर अपनी सहमति नहीं जताता है, तो सरकार दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुला सकती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 118 के तहत राष्ट्रपति संयुक्त सत्र बुला सकते हैं। इस तरह की व्यवस्था के दौरान सदस्यों की कुल संख्या 795 (लोकसभा से 545 और राज्यसभा से 250) हो जाती है। चूंकि सत्ताधारी दल के पास लोक सभा में बहुमत है इसलिए इसे 400 के जादुई आंकड़े तक पहुँचने और गतिरोध ख़त्म करने के लिए थोड़े से राज्य सभा सदस्यों की ही जरूरत पड़ती है।
यह किसी कानून को पारित करने का अंतिम उपाय है। हालांकि, यह एक "आकर्षक विकल्प" नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, संयुक्त सत्र का विकल्प चुनना निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विपक्ष को मनाने की सरकार की अक्षमता को इंगित करता है।
भारत में लोकतंत्र मतलब संख्याएं
वर्तमान लोकसभा में सत्ताधारी दल बहुमत में है। एनडी के पास बहुमत होने के साथ यह नियम पुस्तिका का सख्ती से पालन करते हुए निचले सदन को चलाने में सक्षम है। हालाँकि, राज्य सभा की स्थिति इसके उलट है। उच्च सदन में गैर-भाजपाई दलों के पास बहुमत है और इसलिए जब महत्वपूर्ण बिलों पर स्पष्ट बहुमत प्राप्त करने की बात आती है तो मोदी सरकार को नाकामयाबी का सामना करना पड़ता है।विधेयकों के साथ क्या होता है?
कुछ विधेयक ऐसे होते हैं जो लोक सभा द्वारा पारित किये जा सकते हैं भले ही उन्हें राज्य सभा द्वारा ख़ारिज कर दिया गया हो, वहीं कुछ विधेयक ऐसे होते हैं जिन्हें पारित करने के लिए संसद के दोनों सदनों की स्वीकृति की आवश्यकता होती है।यदि प्रस्तावित विधेयक प्रकृति में कठोर और प्रतिकूल है, तो विपक्ष एक जोरदार विरोध दर्ज कर सकता है और सर्वसम्मति से इसके पारण को रोक सकता है। यह राज्य सभा में बहस का कारण बनेगा और सरकार इसे संशोधित करने के लिए दबाव महसूस करेगी। जबकि अधिकांश मामलों में राज्य सभा के सदस्य प्रस्तावित विधेयकों में जन-विरोधी उपनियमों पर ध्यान आकर्षित करते हैं और नागरिकों के हितों की रक्षा के लिए एक वास्तविक रूचि प्रदर्शित करते हैं, वहीं ऐसे भी अवसर हो सकते हैं जब ये सदस्य सत्ताधारी दल के लिए बाधाएं खड़ी करने के लिए विधेयकों को पारित करने में देरी करते हैं। यह संभव है कि राज्य सभा में बहुमत में होने के कारण विपक्षी दल वर्तमान सरकार को इसके सुधार एजेंडे के साथ आगे बढ़ने से रोकने के लिए जानबूझकर अडंगा लगा रहे हों।
यदि सत्तारूढ़ सरकार राज्यसभा में अल्पमत है और विपक्ष प्रस्तावित बिलों पर अपनी सहमति नहीं जताता है, तो सरकार दोनों सदनों की संयुक्त बैठक बुला सकती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 118 के तहत राष्ट्रपति संयुक्त सत्र बुला सकते हैं। इस तरह की व्यवस्था के दौरान सदस्यों की कुल संख्या 795 (लोकसभा से 545 और राज्यसभा से 250) हो जाती है। चूंकि सत्ताधारी दल के पास लोक सभा में बहुमत है इसलिए इसे 400 के जादुई आंकड़े तक पहुँचने और गतिरोध ख़त्म करने के लिए थोड़े से राज्य सभा सदस्यों की ही जरूरत पड़ती है।
यह किसी कानून को पारित करने का अंतिम उपाय है। हालांकि, यह एक "आकर्षक विकल्प" नहीं है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, संयुक्त सत्र का विकल्प चुनना निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विपक्ष को मनाने की सरकार की अक्षमता को इंगित करता है।
Last Updated on September 26, 2018