भारतीय राजनीति को संविधान, जो भारतीय राजनीतिक प्रणाली और इसके मूल उद्देश्यों के प्रत्येक पहलू को परिभाषित करता है, में निर्धारित सिद्धांतों द्वारा निर्देशित किया जाता है। संविधान में निर्दिष्ट नियम और प्रक्रियाएं देश के शासन को आधार देती हैं। केंद्र, राज्य और स्थानीय स्तरों पर सरकारों की संरचना एवं कार्यप्रणाली को स्पष्ट करने के अलावा संविधान राजनीति के कई अन्य पहलुओं से निपटने के लिए एक सन्दर्भ दस्तावेज के रूप भी कार्य करता है।
कैसे “अतीत की कुछ राजनीतिक हस्तियाँ “संविधानवाद से दूर होकर निरपेक्षवादी सिद्धांत की तरफ चली गयीं”, इसके कुछ उत्कृष्ट उदाहरण कांग्रेस शासन के विभिन्न चरणों में देखे जा सकते हैं। यदि पंडित नेहरु ने 1951 में पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सलाह देकर एक गलत उदहारण पेश किया, वहीं उनकी बेटी की मनमानी तब सामने आई जब उन्होंने 1971 में ‘दमनकारी प्रेस विधेयक के लिए दबाव डाला। लेकिन संवैधानिक प्रावधानों को आज भी कुचला जा रहा है।
एक मजबूत संवैधानिक ढांचा होने के बावजूद भारतीय राजनीति जातीय संघर्ष, जातिवाद, आतंकवाद में वृद्धि और उदार लोकतन्त्रों के प्रति असहिष्णु विचारों के उद्भव जैसी उच्च अभूतपूर्ण चुनौतियों के खिलाफ है। भ्रष्टाचार, पार्टी के भीतर के संघर्षों और संसदीय कार्यवाही में व्यवधान के मामलों में भी वृद्धि हुई है। इससे नागरिकों की चुनावों के प्रति रूचि कम हुई है।
राजनीतिक दलों, आम नागरिकों और सरकार को यह समझना होगा कि "संविधान विफल नहीं हो रहा है बल्कि संविधान को हम विफल कर रहे हैं"।
भारतीय राजनीति को मार्गदर्शित करने वाले संवैधानिक मूल्य
भारतीय संविधान में राज्य नीति के मौलिक अधिकारों, दायित्वों और निदेशात्मक सिद्धांतों पर विस्तृत प्रावधान हो सकते हैं लेकिन राजनीति के लोग इसकी सच्ची भावना को हमेशा कायम नहीं रखते हैं। जबकि संविधान भारत को 'संप्रभु, समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य' के रूप में वर्णित करता है लेकिन स्वतंत्रता के बाद की राजनीति के विकास ने इस दावे पर सवाल उठाया है। जबकि आपातकाल शासन लागू होने से संविधान में सूचीबद्ध किये गए लोकतान्त्रिक और गणतंत्र के मूल्य क्षीण हुए, वहीं सांप्रदायिक हिंसा की घटनाओं ने धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को गंभीर खतरे में डाल दिया है। भारत की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता पर बार-बात तनाव डाला गया है। विभाजित सरकारों और राजनीति के अपराधीकरण के बावजूद, कोई भी बड़ा लोकतांत्रिक और सामाजिक हस्तक्षेप नहीं हुआ है जो देश को इस तरह के दलदल से बचा सकता है।क्या भारत में राजनीतिक संकट के लिए संविधान को दोषी ठहराया जाना चाहिए?
यह समय है कि हम समझें कि भारतीय राजनीति में प्रत्येक विसंगति के लिए संविधान को दोष देना जायज नहीं है क्योंकि एक संविधान राजनीति के आधारभूत ढांचे को स्थापित करने से ज्यादा और कुछ भी नहीं कर सकता। एक राजनीतिक विद्वान ग्रैनविले ऑस्टिन के अनुसार, भारत में राजनीतिक संकट संविधान में किसी भी दोष के कारण पैदा नहीं हुआ था, बल्कि यह "गैर-दूरदृष्टा नीतियों और सत्तारूढ़ राजनेताओं की अति महत्वाकांक्षाओं" के कारण हुआ था।कैसे “अतीत की कुछ राजनीतिक हस्तियाँ “संविधानवाद से दूर होकर निरपेक्षवादी सिद्धांत की तरफ चली गयीं”, इसके कुछ उत्कृष्ट उदाहरण कांग्रेस शासन के विभिन्न चरणों में देखे जा सकते हैं। यदि पंडित नेहरु ने 1951 में पंजाब में राष्ट्रपति शासन लागू करने की सलाह देकर एक गलत उदहारण पेश किया, वहीं उनकी बेटी की मनमानी तब सामने आई जब उन्होंने 1971 में ‘दमनकारी प्रेस विधेयक के लिए दबाव डाला। लेकिन संवैधानिक प्रावधानों को आज भी कुचला जा रहा है।
एक मजबूत संवैधानिक ढांचा होने के बावजूद भारतीय राजनीति जातीय संघर्ष, जातिवाद, आतंकवाद में वृद्धि और उदार लोकतन्त्रों के प्रति असहिष्णु विचारों के उद्भव जैसी उच्च अभूतपूर्ण चुनौतियों के खिलाफ है। भ्रष्टाचार, पार्टी के भीतर के संघर्षों और संसदीय कार्यवाही में व्यवधान के मामलों में भी वृद्धि हुई है। इससे नागरिकों की चुनावों के प्रति रूचि कम हुई है।
राजनीतिक दलों, आम नागरिकों और सरकार को यह समझना होगा कि "संविधान विफल नहीं हो रहा है बल्कि संविधान को हम विफल कर रहे हैं"।
Last Updated on September 16, 2018