यह कांग्रेस के लिए बहुत ही खुशी की बात है कि राज्य में इसने काफी समय के अंतराल के बाद जीत हासिल की है। इसे अपनी विजय का डंका बजाने के काफी कठिन अग्निपरीक्षा से गुजरना पड़ा है। जहाँ एक ओर भाजपा ने इस राज्य पर कई सालों तक राज्य किया है और इस बार फिर इसने जीत का स्वाद चखने में कोई कसर नहीं छोड़ी, वहीं दूसरी ओर कांग्रेस ने भी अपनी विजय पताका लहराने के हर संभव प्रयास किए हैं। हार-जीत का फैसला भले ही भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच हो लेकिन यह तय था कि यह चुनाव मुख्यमंत्री शिवराज सिंह का भविष्य तय करेगा।
यह भी तय था कि अगर शिवराज चुनाव जीतते तो वह पार्टी में नरेंद्र मोदी और अमित शाह के बाद बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान पर आ जाते। यदि प्रदेश की जनता ने साथ नहीं दिया होता तो शिवराज की भाजपा में वही स्थिति हो जाती, जो आज कांग्रेस में दिग्विजय की है।
पिछले कुछ महीनों के चुनाव प्रचार से यह साफ हो गया था कि इस बार भाजपा कमल निशान की बजाय शिवराज के चेहरे को आगे करके चुनाव लड़ रही थी। ध्यान देने योग्य बात यह है कि मध्य प्रदेश में भाजपा के भीतर ऐसे कई बड़े नेता हैं, जिन्होंने शिवराज से पहले और शिवराज के साथ अपना राजनीतिक सफर शुरू किया था। इस चुनाव में ये सभी नेता मुख्य धारा से बाहर थे।
मध्यप्रदेश में आदिवासियों की आबादी 21 प्रतिशत से अधिक है। राज्य विधानसभा की कुल 230 सीटों में से 47 सीटें आदिवासी वर्ग के लिए आरक्षित हैं। इसके अलावा करीब 30 सीटें ऐसी मानी जाती हैं जहाँ पर्याप्त संख्या में आदिवासी आबादी है।
शिवराज सरकार के गंभीर मुद्दे
आइए नजर डालते हैं उन मुद्दों पर जो भाजपा का तख्ता पलटने के लिए काफी थे, वैसे जनता भी एक ही सरकार की छत्रछाया में रहकर ऊब चुकी थी। इसलिए जनता ने इस बार कुछ अलग इतिहास रचते हुए कांग्रेस को अपना कीमती मत प्रदान किया।
व्यापम घोटाला- जुलाई 2013 में यह घोटाला सामने आया था। पुलिस ने 20 ऐसे फ़र्ज़ी परीक्षार्थियों को ग़िरफ़्तार किया था, जो दूसरों के नाम पर परीक्षा दे रहे थे। बाद में मामले की जांच आगे बढ़ी तो पता चला कि यह बड़ा ग़िरोह है। इसमें व्यापमं के अधिकारी, नेता और मंत्री (राज्य के मंत्री रह चुके लक्ष्मीकांत शर्मा मुख्य आरोपियों में हैं) तक शामिल हैं। इस घोटाले के 3,800 आरोपित हैं। लगभग 170 मामले दर्ज़ हैं। बीते तीन साल से तो केंद्रीय अन्वेषण ब्यूरो (सीबीआई) इसकी जांच कर रही है। वहीं बीते पांच साल में इस घोटाले से जुड़े लगभग 16 लोगों की रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो चुकी है।
अवैध रेत खनन-डंपर घोटाला– नर्मदा पट्टी और ग्वालियर-चंबल के क्षेत्रों में तो यह बेहद ही संवेदनशील मुद्दा है। इसका अंदाज़ा बीते सितंबर की घटना से लगा सकते हैं जब रेत माफ़िया के ट्रैक्टर ने मुरैना जिले में वन विभाग के डिप्टी रेंजर सूबेदार सिंह कुशवाह को कुचलकर मार दिया था। रेत माफ़िया के शिकार हुए सूबेदार अकेले नहीं हैं। इसी साल भिंड में स्थानीय पत्रकार संदीप शर्मा भी ऐसे ही जान गंवा चुके हैं। इससे पूर्व 2015 में एक सिपाही और उससे भी पहले 2012 में आईपीएस नरेंद्र कुमार भी रेत माफ़िया का शिकार हो चुके हैं। आंकड़ों के हिसाब से 2009 से 2015 तक (यह समय भाजपा के शासन का ही है) ही मध्य प्रदेश में अवैध खनन के 42,152 मामले दर्ज़ हो चुके थे और पर्यावरण के जानकार बताते हैं कि किसी एक इलाके से ही अवैध खनन का यह कारोबार लगभग 25-30 लाख रुपए प्रतिदिन का है।
ई-टेंडरिंग घोटाला- इसी साल सितंबर में द इकॉनॉमिक टाइम्स ने इसका ख़ुलासा किया था। सरकारी तंत्र में कई सालों से यह घोटाला जारी था। सरकार का पूरा ऑनलाइन कामकाज देखने वाली नोडल एजेंसी- मध्य प्रदेश राज्य इलेक्ट्रॉनिक डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (एमपीएसईडीसी) के प्रबंध निदेशक मनीष रस्तोगी का आनन-फानन में तबादला कर दिया।
किसानों की दुर्दशा, बेरोज़ग़ारी, पलायन– अभी इसी साल मार्च में एक रिपोर्ट आई थी। यह रिपोर्ट भी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की थी। इसके हवाले से केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने लोक सभा में बताया था कि 2014 से 2016 के बीच मध्य प्रदेश में किसानों की आत्महत्या की दर में 21 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ है। जबकि देश के अन्य इलाकों में इसी दौरान इसमें 10 फ़ीसदी की कमी दर्ज़ की गई थी। ऐसे ही मालवा-निमाड़ के लिए सोयाबीन की खेती काफ़ी मायने रखती है। साल 2012-13 में 58.13 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में यह फसल बोई गई थी और उत्पादन हुआ था 64.86 लाख टन। लेकिन 2017-18 सोयाबीन की बुवाई घटकर रह गई 50.10 लाख हेक्टेयर और उत्पादन रह गया 42 लाख टन। इस इलाके में बड़े पैमाने पर होने वाली अफ़ीम की खेती का भी यही हाल है। फिर आती है बात फ़सलों के उचित दाम की, तो याद दिला दें कि मंदसौर मध्य प्रदेश में ही है जहाँ फसलों की उचित कीमत पाने के लिए आंदोलन कर रहे किसानों में से छह की मौत पुलिस की गोलियों से हुई थी। मालवा-निमाड़ की तरह यहाँ की लगभग 30-40 फीसदी आबादी अपने घरों से दूर रहने को मजबूर है।
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